Tuesday 4 August 2015

मैं कवी नहीं हूँ

मैं कवी नहीं हूँ,
कभी कभी कुछ भाव, शब्दों के अभाव में,
टूटी फूटी पंक्तियों में कागज़ पर उतरते हैं,
तो वो कविता नहिं कहलाते...
वो भाव, वो शब्द मेरे साथ नहीं रहते,
कभी जाड़ों की रातों में यूँ ही रजाई की तरह मुझे घेर लेतें है,
या कभी भीड़ में भी जब एकांत से भेंट होती है, तब किसी पुराने साथी की तरह मेरा हाथ मिला लेतें हैं...
जी नहीं! मैं कवी नहीं हूँ...
मैं कवी नहीं हूँ,
मेरे भाव कोई चित्र नहीं कि ठहर जाएँ, कोई उन्हें समझ सके,
वे तो सिगरेट के धुंए की तरह है, जो नसों से दौड़ते हुए आते हैं और हवा में कहीं खो जाते हैं...
मेरे शब्द साधारण हैं, इनमे न कोई अलंकार है,
ना ही ये व्याकरण के फ़िल्टर से छन्न के आते हैं...
जी नहीं! मैं कवी नहीं हूँ...
मैं कवी नहीं हूँ,
मेरी पंक्तियाँ एक कथा बखान्ति है,
जिसका न सर है, न पैर; न दिशा है, न लक्ष्य...
जब भावों की स्कॉच अधड़ों से सीने को आग लगाती है,
तब लड़खड़ाती हुई कुछ पंक्तियां कागज़ पर उतर जाती है...
जी नहीं! मैं कवी नहीं हूँ...