Monday, 15 July 2013

सत्योप्देश

जब कभी मन ने नैनों को निचोड़ा,
भावों का पानी चेहरे पे छलका...
देख के मुझे, दर्पण मुझसे बोला,
"ये मोती यूँ न गवां, चुप हो, थोडा मुस्कुरा..
जब तेरे में क्षमता, फिर क्यूँ तू उदास खड़ा..
ये श्रृष्टि का अंत नहीं, पतझड़ से यूँ ना घबरा..
तू वीर पुत्र है, 'उसका' प्रतिरूप है, उठ, कदम बढ़ा..
विजय कर अपने भय पर, उस गढ़ पर अपना ध्वज फ़हरा..
ये भ्रमांड तेरा है, ये समय तेरा दास है, आकाश पे अपना पताका लहरा.. 
इस जल से अपना भविष्य सींच, अपने पुर्वों का नाम अमर बना..
ये मोती यूँ न गवां, चुप हो, थोडा मुस्कुरा.."
जब बोझल द्रष्टि साफ़ हुई, मैंने देखा...
दर्पण दर्पण ना था, मेरा प्रतिबिम्ब मेरा ना था...
वो तो मेरा भोला, मेरा प्यारा, मेरा सखा, मेरा मित्र था...

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