Monday, 10 September 2018

आलम

क्या नीयत है क्या है नीयति,
ना साथ गवारा है ना दूरी,
कभी मिल के बिछड़े, कभी बिछड़ के मिले,
ना अपनी हो सकी तुम ना परायी...

मोहब्बत तो बेपनाह थी,
शिकायतें भी कम ना थी,
आग और पानी के खेल में,
अपनी ज़िन्दगी दाँव पर थी....

अब आलम यूँ है, 'एकांती',
ना सुकून बचा है ना खुशहाली,
सूनी शाम है और टूटा चिराग,
ना रंग बचे हैं ना रौशनी...

~ श्रेयांस जैन (एकांती)

Friday, 10 August 2018

रुबाई

आज फिर हाथ में कलम है,
ज़हन में अधूरी सी नज़्म है,
कागज़ है संगमरमर सा,
मैं संगतराश, और तेरी यादों की बज़्म है...

तेरा सजदा मेरी इबादत है,
जहाँ में मुकद्दस फक्त मुहब्बत है,
और फिज़ा में बह रही खुश्बू - ए - इश्क,
वफा की ज़मानत मेरी रूबाइयत है...

मिली थी फिर तुमसे जो सौगात,
थी वह तुझसे आखिरी मुलाकात,
समझा जिसे था तेरा प्यार,
वह तो थी सिर्फ तेरी खैरात...

~ श्रेयांस जैन (एकांती)

Tuesday, 4 August 2015

मैं कवी नहीं हूँ

मैं कवी नहीं हूँ,
कभी कभी कुछ भाव, शब्दों के अभाव में,
टूटी फूटी पंक्तियों में कागज़ पर उतरते हैं,
तो वो कविता नहिं कहलाते...
वो भाव, वो शब्द मेरे साथ नहीं रहते,
कभी जाड़ों की रातों में यूँ ही रजाई की तरह मुझे घेर लेतें है,
या कभी भीड़ में भी जब एकांत से भेंट होती है, तब किसी पुराने साथी की तरह मेरा हाथ मिला लेतें हैं...
जी नहीं! मैं कवी नहीं हूँ...
मैं कवी नहीं हूँ,
मेरे भाव कोई चित्र नहीं कि ठहर जाएँ, कोई उन्हें समझ सके,
वे तो सिगरेट के धुंए की तरह है, जो नसों से दौड़ते हुए आते हैं और हवा में कहीं खो जाते हैं...
मेरे शब्द साधारण हैं, इनमे न कोई अलंकार है,
ना ही ये व्याकरण के फ़िल्टर से छन्न के आते हैं...
जी नहीं! मैं कवी नहीं हूँ...
मैं कवी नहीं हूँ,
मेरी पंक्तियाँ एक कथा बखान्ति है,
जिसका न सर है, न पैर; न दिशा है, न लक्ष्य...
जब भावों की स्कॉच अधड़ों से सीने को आग लगाती है,
तब लड़खड़ाती हुई कुछ पंक्तियां कागज़ पर उतर जाती है...
जी नहीं! मैं कवी नहीं हूँ...

Tuesday, 3 June 2014

बेखबर

चल निकला हूँ मैं उस सफ़र पर,
रास्ते अनजान जहाँ मंजिल बेखबर..
खो कर खुदको उस राह पर,
मैं कौन हूँ, खुदसे बेखबर...

ओढ़ लिया तुझको तन पर,
धुप-छाओं, मौसमों से बेखबर..
चढ़ गयी हाला सुध-बुद्ध पर,
मैं कौन हूँ, खुदसे बेखबर...

जोगी बन चला तेरे पंथ पर,
दोस्ती-रिश्तेदारी से बेखबर..
छाप तेरी ऐसी पड़ी रूह पर,
मैं कौन हूँ, खुदसे बेखबर...

Monday, 9 December 2013

बन बंजारा भटकू मैं

तू खींच तार सितार के,
तू राग बना मल्हार के, 
धुन में तेरी झुमुं मैं,
बन बंजारा भटकू मैं।

तू वन बसा चिर के,
तू उपवन खिला कश्मीर के,             
बन हिरन फिरूं मैं,
बन बंजारा भटकू मैं।

तू रंग उड़ा आकाश के,
तू चित्र बना पहाड़ के,
नीली धार बन उतरूं मैं,
बन बंजारा भटकू मैं।

तू मंदिर बना शिव के,
तू ताल बजा डमरू के,
बन जोगी तेरा नाचूं मैं,
बन बंजारा भटकू मैं।

Tuesday, 24 September 2013

दिल ढूँढता है...

मिसरा ग़ालिब का है, पर कैफियत सबकी अपनी अपनी...

दिल ढूँढता है... फिर वही... फुर्सत के रात दिन...
मोहले की चौक पर,
गेंद, बल्ले, गालियों से,
हम-उम्र साथियों संग,
घंटो जंग लड़ते हुए...
दिल ढूँढता है... फिर वही... फुर्सत के रात दिन...
या, भोर के सफ़र में,
पांच उन्चास के पालने पर,
हम-सफरों के संग,
रोज़ाना सोते हुए...
दिल ढूँढता है... फिर वही... फुर्सत के रात दिन...
या, कॉलेज की चौखट के आगे, 
मन्नू के टीले पर सिगरेट के बादलों से ऊपर,
सुट्टेरी पंछियों के संग,
सहसा उड़ते हुए...
दिल ढूँढता है... फिर वही... फुर्सत के रात दिन...
या, आधी रातों को,
आँगन के पेड़ तले चौकी पर,
सखों, साथियों, भूतों, कुत्तों के संग,
मक्खियाँ और गप्पे मारते हुए...
दिल ढूँढता है... फिर वही... फुर्सत के रात दिन...