Sunday 25 December 2011

फकीर तनहाई का....

न जाने क्यूँ, आज जाने पहचाने रास्तों में खो जाने का जी है.
पहचान भुलाकर अपनी, भीड़ में खो जाने का जी है...

रोको न अब, बह जाने दो, बहुत रह लिए बाँध में.
हटाओ लगाम, भागने दो आज, फुर्सत, मध्मस्त, मर्ज़ी में...

वहाँ, दरिया में एक कश्ती है,
छोड़ो, आज तैर के पार जाना है,
लहरों को बाँहों से चीरना है,
पार जाकर चैन से सोयेंगे...

आज बस फिरना है...
रंगों से अंधेरो तक,
शोर से ख़ामोशी तक,
समाज से एकांत तक.
नहीं चाहिए मंज़िल की परछाई,
नहीं चहिये नक्षा ज़िंदगी का.
यूँही जीने दो आज,
बनकर फकीर तनहाई का.

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